सोना, जिसे हमेशा से आर्थिक सुरक्षा का प्रतीक माना गया है, आजकल वैश्विक मंच पर चर्चा का केंद्र बन गया है। जब भी दुनिया में कोई बड़ा संकट आता है, निवेशक अपने धन को सोने की सुरक्षित तिजोरी में डाल देते हैं। लेकिन इस बार कहानी कुछ अलग है। यूरोप के कई देश अब उस सोने को वापस मांग रहे हैं, जो उन्होंने दशकों पहले अमेरिका और लंदन की तिजोरियों में रखा था। आखिर ऐसा क्या हुआ कि यूरोपीय देशों में यह बेचैनी बढ़ रही है
हाल ही में अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की सत्ता में संभावित वापसी की चर्चाओं ने यूरोप में हलचल मचा दी है। ट्रंप ने अपने पिछले कार्यकाल में यूएस फेडरल रिजर्व की स्वतंत्रता पर सवाल उठाए थे और ब्याज दरों को लेकर व्हाइट हाउस का नियंत्रण बढ़ाने की बात कही थी। इससे यूरोपीय देशों में आशंका बढ़ गई है कि अगर भविष्य में अमेरिका विदेशी देशों के सोने को वापस करने से इनकार कर दे, तो क्या होगा? मिसाल के तौर पर, जर्मनी के सांसदों को पहले अमेरिकी तिजोरियों में रखे सोने को देखने की अनुमति नहीं मिली थी, जिसने पारदर्शिता पर सवाल खड़े किए। इस डर ने यूरोप को अपने सोने के भंडार पर फिर से नियंत्रण लेने के लिए प्रेरित किया है।
द्वितीय विश्व युद्ध के बाद यूरोप में आर्थिक और राजनीतिक अस्थिरता के कारण कई देशों ने अपने सोने के भंडार को सुरक्षित रखने के लिए अमेरिका के न्यूयॉर्क स्थित फेडरल रिजर्व बैंक या लंदन के बैंक ऑफ इंग्लैंड को चुना। जर्मनी, इटली और फ्रांस जैसे देशों ने अपने सोने का बड़ा हिस्सा इन तिजोरियों में रखा, ताकि अंतरराष्ट्रीय व्यापार और आर्थिक लेन-देन में भरोसा बना रहे। मैनहैटन की चट्टानों के नीचे 80 फीट गहरी फेडरल रिजर्व की तिजोरी में जर्मनी का लगभग आधा सोना आज भी मौजूद है। लेकिन अब सवाल यह है कि क्या यह सोना उतना ही सुरक्षित है, जितना पहले माना जाता था?
टैक्सपेयर्स एसोसिएशन ऑफ यूरोप (TAE) ने साफ शब्दों में कहा है कि यूरोपीय देशों को अपने सोने को वापस मंगाने या कम से कम उसकी पूरी जांच और स्वतंत्र ऑडिट कराने की जरूरत है। TAE का मानना है कि भले ही सोना अपने देश में न लाया जाए, लेकिन उस पर पूर्ण नियंत्रण और पारदर्शिता जरूरी है। यह मांग सिर्फ आर्थिक नहीं, बल्कि राष्ट्रीय गौरव और सुरक्षा से भी जुड़ी है। यूरोपीय नागरिक अब यह जानना चाहते हैं कि उनका सोना कहां है और उसकी स्थिति क्या है।
पिछले तीन सालों (2022, 2023 और 2024) में दुनिया भर के केंद्रीय बैंकों ने हर साल 1000 टन से ज्यादा सोना खरीदा है, जो पिछले दशक के औसत (400-500 टन) से दोगुना है। इसके पीछे दो बड़े कारण हैं। पहला, वैश्विक स्तर पर बढ़ती महंगाई, जिसने निवेशकों को सोने की ओर आकर्षित किया है। दूसरा, अंतरराष्ट्रीय राजनीतिक अस्थिरता, जो देशों को अपने भंडार को मजबूत करने के लिए प्रेरित कर रही है। यूरोपियन सेंट्रल बैंक की एक रिपोर्ट के अनुसार, सोना अब यूरो से भी बड़ा विदेशी मुद्रा भंडार बन गया है। यह बदलाव दर्शाता है कि सोना अब सिर्फ एक धातु नहीं, बल्कि वैश्विक अर्थव्यवस्था की रीढ़ बन चुका है।